शुक्रवार, 7 मार्च 2008

संबोधन की तलाश

फूल, कली या गुड़िया
कहूँ तुम्हें
शूल, चिंगारी या बारूद की पुडिया
कहूँ तुम्हें


डरता हूँ मैं
जब भी तुम्हें
गुड़िया कहने की कोशिश करता हूँ


डर इस बात का कि
कहीं मैं
तुम्हें कमजोर ना बना दूँ और ...
बारूद की पुडिया कहते वक्त भी
डर
मेरे मन में होता है कि
कहीं मैं
तुम्हारी कोमल भावनाओं
को क्षत- विक्षत तो नहीं कर रहा हूँ



लेकिन
मैं करूँ तो
क्या करूँ ?
आख़िर तुम्हें
किस नाम से संबोधित करूँ ...


तुम्हारे लिए सही
संबोधन की तलाश में
मैं कहाँ- कहाँ नहीं भटका
कोई गली, कोई चौराहा
भी शेष नहीं रहा ...
जहाँ से मुझे
तुम्हारे लिए
एक सही संबोधन मिलें ... और
मेरी समस्या का समाधान हो .


ना जाने
इस संबोधन की तलाश में
मैं कब तक यूं ही भटकता रहूंगा .
कहना जो चाहता हूँ तुझसे
पता नहीं
वो कभी
कह भी सकूँगा !

(अभी वक्त की कमी है ... सो इस कविता पर बात फ़िर कभी ... )

तृष्णा / 30 नवंबर, 2003/ CHHINDWARA

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